ऋषि - मधुच्छन्दा, निवास स्थान - पृथ्वीस्थानीय, सूक्त संख्या -ऋग्वेद 1.1
ऋग्वेदीय देवों में अग्नि का सबसे प्रमुख स्थान हैं वैदिक आर्यों के लिए देवताओं में इन्द्र के पश्चात अग्नि देव का ही पूजनीय स्थान है। वैदिक मंत्रों के अनुसार अग्निदेव -नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न, यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करने वाला तथा तेज एवं प्रकाश का अधिष्ठाता है। अग्नि को द्यावाप्रथ्वी का पुत्र बताया गया है। मातरिश्वा भृगु तथा अंगिरा इसे भूतल पर लाऐ। अग्नि पार्थिव देव है। यज्ञाग्नि के रूप में इसका मूर्तिकरण प्राप्त होता है। अतः इसे ऋत्विक होता और पुरोहित बताया गया है। यह यजमानों के द्वारा विभिन्न देवों के उद्देश्य से अपने में प्रक्षिप्त हविष् को उनके पास पहुँचाता है।
यथा - अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्॥
ऋग्वेद में अग्नि को धृतपृष्ठ, शोचिषकेश, रक्तश्मश्रु,रक्तदन्त, गृहपति, देवदूत, हव्यवाहन, समिधान, जातवेदा, विश्वपति, दमूनस, यविष्ठय, मेध्य आदि नामों से सम्बोधि्ात किया गया है।
‘मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत’ पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवां भाई हैं इसका रथ सोने के समान चमकता है और दो मनोजवा एवं मनोज्ञ वायुप्रेरित लाल घोड़ो द्वारा खींचा जाता है। अगि् न का प्रांचीनतम प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक,अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आह्वान किया जाता है- जैसे
- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्चित्रश्रवस्तमः।
- देवो देवेभिरागमत् ॥
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(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।
(2.) ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो
नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।
(3.) ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव
दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।
(4.) ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः
परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।
(5.) ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः
सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरागमत् ।।
(6.) ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने
भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।
(7.) ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे
दोषावस्तर्धिया वयम् ।
मनो भरन्त एमसि ।।
(8.) ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य
दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ।।
(9.) ॐ स नः पितेव सूनवेSग्ने
सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ।।
(ऋग्वेदः--1.1.1--9)